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आयुर्वेद के साथ कुछ भूली बिसरी बाते

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आयुर्वेद के साथ कुछ भूली बिसरी बाते

अभी पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में जाना हुआ। यह मेरा native place है। यहाँ आकर पुरानी  बचपन की यादे ताजा हो जाती हैं। मेरे दादा जी (Grand  Father) एक सफल और बहुत प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। शहर में उनके दो आयुर्वेदिक चिकित्सालय थे। इसके अलावा हरिद्वार और नैनीताल के पास भुवाली में भी आयुर्वेदिक चिकित्सालय  थे। लेकिन उनकी असमय म्रत्यु हो जाने के कारण उनका बनाया सब कुछ बिखर गया। पिता जी जोकि अपने भाईयों  में सबसे बड़े थे वह उस समय 17  वर्ष के थे। इस कारण उनके आयुर्वेद की पूंजी को सहेजा  नहीं जा सका। उनके समय की बनाई हुई बहुत सी भस्मे , दवाईयाँ  अभी भी रखी है। आजकल लोग शिलाजीत को बहुत महत्त्व देते हैं काफी कीमती होता है। मुझे याद है शिलाजीत एक कनस्तर में भरा हुआ घर के छज्जे पर रखा रहता  था और उसको कोई पूछने वाला भी न था।


मेरे बचपन में इस शहर में  दो धर्मार्थ आयुर्वेदिक अस्पताल हुआ करते थे। जिसमे से एक  गाँधी धर्मार्थ आयुर्वेदिक अस्पताल था। इस अस्पताल में मेरे पिता जी प्रधान चिकित्सक हुआ करते थे। दूसरे अस्पताल का नाम जवाहर लाल नेहरु धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय है। यह आयुर्वेदिक चिकित्सालय  अभी चल रहा है।

पिता जी के  अस्पताल में तरह – तरह की आयुर्वेदिक  दवाए , चूर्ण, भस्म आदि मरीजो के लिए बनाये जाते थे। मै भी 1975 से 1977 में वहां पर शाम को 5  से 7  जाया करता था। अत: कुछ एक आयुर्वेदिक चूर्ण , दवाओ को बनाने की जानकारी मुझे भी हो गई थी। लेकिन समय चक्र ने इन सारी बातो को भुला दिया था।

अभी कुछ समय से मैंने कुछ एक आयुर्वेदिक चूर्ण अपने लिए बनाये। जब मुझे उनसे फायदा हुआ तब मैंने अपने परिचित मित्रो , रिश्तेदारों को देना  शुरू किया। उनको इन दवाओ से फायदा हुआ तो वह अन्य मर्जो की भी दवाये मांगने लगे। मुझे भी अच्छा  लगता था कि इनसे लोगो को फायदा हो रहा है। जबकि वहीं एलोपेथिक दवाओ से लोगो को   साइड इफेक्ट ज्यादा होते है।

मुझे कुछ आयुर्वेदिक दवाओ के बारे में जानकारी चाहिए थी अत: मै जवाहर लाल नेहरु धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय के वैद्य जी से मिलने चला गया।  इस समय आशा के विपरीत चिकित्सालय एक तरह से खाली  था। इक्के – दुक्के मरीज ही वहां पर दवा ले रहे थे। वैद्य जी के पास कोई मरीज नहीं था, मैंने उन्हें  अपना परिचय दिया और अपने आने का प्रयोजन बताया साथ ही साथ अपने बनाये गए कुछ एक चूर्ण भी दिए । पिताजी से वह बहुत अच्छी तरह से परिचित थे। रोज ही उनमे आपस में दुआ सलाम होती रहती थी।  वह बहुत ख़ुशी से आयुर्वेदिक दवाओ के बारे में जानकारी देने लगे। मै लगभग 2 0 -2 5  मिनट उनके पास बैठा। इस बीच में केवल एक मरीज ही दवा लेने आया। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ क्योकि मै  जब वहां रहता था तब वहां एक दिन में 500  मरीज दवा  लेने आते थे। मै सोचने लग गया कि अब  ऐसा क्या हो गया है कि आयुर्वेदिक चिकित्सालय में मरीज ही नहीं है और वहीँ डाक्टर की दुकान पर भीड़ लगी हुई है।

मुझे याद है उस समय शहर का बड़े से बड़ा आदमी मेरे पिताजी के अस्पताल में दवा लेने के लिए आता था। पर आज कितना बदलाव आ  गया है। शायद लोगो को इन चूर्ण चटनी से ज्यादा डाक्टर की लाल , नीली , पीली गोलियां  अच्छी लगने लगी हैं या उन्हें धर्मार्थ चिकित्सालय में जाना छोटेपन का अहसास दिलाता है।

यहाँ एक बात कहना और पसंद करूँगा कि आयुर्वेदिक दवाये ज्यादा महँगी नहीं होती हैं पर कारोबारियों ने इन्हें महंगा बना दिया है।

मुझे  एक दवा बनाने के लिए शुद्ध गंधक 100  ग्राम चाहिए थी। पड़ोस में एक वैद्य  के पास गया। उन्होंने एक दूकान का पता बता दिया। वह दुकानदार  ब्राण्डेड कम्पनी की दवाये बेचता था। 1 0  ग्राम शुद्ध गंधक की कीमत 30  रूपये थी। यानि कि 100  ग्राम की कीमत 300 /- रूपये। वापस आ गया , मैंने 150/- रूपये में 1  किलो शुद्ध गंधक तैयार कर ली। सोंचिये कितने प्रतिशत लाभ पर यह कम्पनियाँ काम कर रही हैं।

एक  और उदहारण  दे रहा हूँ। उस समय मै लखनऊ विश्वविधालय में पढता था। मेरे एक मित्र की माता  जी के घुटनों में तकलीफ थी। मैंने उसे अपने पिताजी के अस्पताल की बनी हुई 10 -12  गोलियां योगराज गुग्गल की दे दी। उससे उन्हें बहुत फायदा हुआ।  उस समय मोबाइल फोन का जमाना तो था नहीं, उसके घर से चिट्ठी आई कि दवा की गोलियों से बहुत फायदा हुआ है और चाहिए। मैंने अपने मित्र से कहा कि  फिलहाल अभी बाजार से किसी कम्पनी की महा योगराज गुग्गल की गोलियों खरीद लो बाद में जब मै घर जाऊंगा तब अस्पताल से लाकर दे दूंगा। 

कुछ दिनों के बाद फिर मित्र  के  घर से  चिठ्ठी आई कि बाजार की गोलियों से कुछ फायदा नहीं हो रहा है वही गोलियाँ चाहिए। सुनकर आश्चर्य हुआ कि मैंने तो उन्हें योगराज गुग्गल दिया था वह फायदा किया और बाजार का महायोगराज गुग्गल फायदा नहीं किया।

इन सबका कारण  शायद यही है कि आयुर्वेदिक पद्धित से तो सरकार बनाने नहीं देती है। कम्पनिया कच्ची दवाओ को मशीन से पीस कर बनाती हैं। जबकि वहां अस्पताल में इमामदस्ते पर हाथ से कूट कर बनाई जाती थीं। उस समय अस्पताल के पंडित जी जो दवा कूटते थे बताते थे कि योगराज गुग्गल बनाने के लिए सारी दवाओ  को मिला कर एक लाख बार इमामदस्ते पर कुटाई की जाती है तब जाकर योगराज गुग्गल की गोलियां बनती हैं।अब कौन करेगा इतनी मेहनत , सभी पैसा कमाने की दौड़ में शामिल हैं।

शायद इन्ही सब कारणों  से लोगो में आयुर्वेद के प्रति अविश्वास बढ़ गया है,

मै तो सभी को आयुर्वेद अपनाने की सलाह  हूँ। जो किसी को एक बीमारी दूर करने के चक्कर में दूसरी बीमारी नहीं लगाती

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